Krishi Chaupal

‘श्रीअन्न’ के नाम से जाने जाएंगे मोटे अनाज

‘श्रीअन्न’ के नाम से जाने जाएंगे मोटे अनाज

Apr 10, 2023
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मोटे अनाज आज सुपर फूड साबित हो रहे हैं। सुपर फूड होने की इनमें सारी खूबियां भी हैं- फसल उगाने में बेहद कम लागत, खेती में कम शारीरिक मेहनत, सिंचाई के लिए बहुत कम पानी, उर्वरक और कीटनाशकों का कम झंझट, भंडारण की भी खास टेंशन नहीं और हेल्थ के लिए इतने फिट कि सुपर हिट। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मोटे अनाजों को ‘श्रीअन्न’ की संज्ञा देकर इनके गुणों का ही महिमामंडन किया है। अर्थात ऐसा अन्न जो हर दृष्टि से श्रीवृद्धि करने वाला है, हर दृष्टि से कल्याण करने वाला है और हर दृष्टि  से शुभ है, वही श्रीअन्न है। जिसे मोटा अनाज कहकर आज तक हेय समझा जाता रहा, वही आज जी-20 यानी आर्थिक सहयोग संगठन की बैठकों में विदेशी मेहमानों को भारतीय लजीज व्यंजन के रूप में परोसा जा रहा है।

महेन्द्र सिंह बोरा

वर्ष 2023 को मोटा अनाज वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है। वह भी तब जब भारत की अध्यक्षता में जी-20 के कार्यक्रम हो रहे हैं। आदिकाल में जब मनुष्य ने खेती करके पेट भरना सीखा तो घास प्रजाति के ये पोषक अनाज यानी श्रीधान्य या आम बोलचाल की भाषा में मोटे अनाज (मिलेट्स) ही सबसे पहले उसके संपर्क में आये। जैसेकि ज्वार, बाजरा, जौ, मक्का, रागी, कोदो, झिंगोरा, सामा, कंगनी, कुटकी, चीना आदि। हजारों साल से यही अनाज मानव सभ्यता के साथ चले आ रहे थे। भारत में सिंधु घाटी सभ्यता से इसके प्रमाण मिलने लगते हैं। ये अनाज कभी खूब चलन में थे और दोनों समय भोजन का मुख्य स्रोत थे। आज भी विश्व के लगभग 132 देशों में इनकी खेती होती है।

मोटे अनाज के वैश्विक उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 20 प्रतिशत और एशिया में 80 प्रतिशत है। भारत में खेती किए जाने वाले प्रमुख मोटे अनाज ज्वार, बाजरा और रागी हैं। मोटे अनाज के कुल उत्पादन में इनकी हिस्सेदारी करीब 80 प्रतिशत है। ज्वार के उत्पादन में भारत विश्व में प्रथम स्थान पर है। ज्वार का सर्वाधिक उत्पादन महाराष्ट्र, कर्नाटक, राजस्थान, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना और मध्य प्रदेश में होता है। बाजरे के उत्पादन में राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक आगे हैं।

जैसे-जैसे खेती का विकास हुआ लोगों की खान-पान की अभिरुचि भी बदलती चली गयी। खानपान में स्वास्थ्य की जगह स्वाद को प्राथमिकता मिलने लगी। अनाज जिनको खाने में ज्यादा स्वाद आने लगा वे आहार के रूप में प्रचलन में आ गये और उनकी तुलना में कम स्वाद वाले खाद्यान्न बाहर होते चले गये। बाद में खान-पान का यही रिवाज बन गया। यही जीवन शैली बन गयी। मोटे अनाजों की जगह गेहूं और धान उगाने पर जोर होने लगा। आज शहरों में ही नहीं गांवों में भी गेहूं-चावल को ही मुख्य भोजन माना जाता है।

आज देश में मोटे अनाज की खेती बहुत कम मात्रा में रह गयी है। हरित क्रांति के पहले समग्र खाद्य पदार्थों में मोटे अनाज की भागीदारी करीब 20 प्रतिशत थी जो आज घटकर 5-6 प्रतिशत के आसपास रह गयी है। ऐसी जगहें जहां भूमि अपेक्षाकृत ऊसर है, पथरीली है, सिंचाई का का साधन नहीं है, छोटी जोत है, लागत पास में नहीं है, या फिर पशु चारे के रूप में मोटे अनाज को उगाया जाता है।

सुखद बात यह है कि अभी कुछ सालों से कई ऐसी अंतर्राष्ट्रीय कंपनियां खाद्य बाजार में उतर आयी हैं जो मोटे अनाज यानी मिलेट्स के तरह-तरह के स्वादिष्ट प्रोसेस्ड प्रोडक्ट बनाकर ऊंचे दाम पर बेच रही हैं और लोग उन्हें चाव से खा भी रहे हैं। तरह-तरह के नूडल्स, ओट्स, बिस्किट, नमकीन आदि मोटे अनाज से बनने लगे हैं जो स्वाद और पोषण दोनों से भरपूर हैं। अपना प्रोडक्शन बढ़ाने के लिए ये कंपनियां किसानों को मोटे अनाज की अच्छी कीमत देने लगी हैं। ऐसे लोग जो स्वास्थ्य पर ध्यान देने लगे हैं या मधुमेह, रक्तचाप, उदर रोग जैसी बीमारियों से पीड़ित हैं वे भी खानपान में मोटे अनाज को शामिल करने लगे हैं। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि जो भोजन कभी मजबूरी में खाया जाता था आज वही स्वास्थ्य के लिहाज से मजबूरी का भोजन बन गया है।

सरकार और कृषि विशेषज्ञों की समझ में भी आ गया है कि खानपान में मोटे अनाजों का प्रयोग पारंपरिक फसलों पर निर्भरता को काफी हद तक कम कर सकता है। खास बात यह भी है कि मोटे अनाज की फसल लेने के लिए बहुत अधिक सिंचाई और पानी की जरूरत नहीं पड़ती है। रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों की भी जरूरत नहीं है। हर तरह के मौसम को भी ये फसलें झेल लेती हैं। ऐसे में पारंपरिक फसलों पर निर्भरता कम होने का सीधा सा मतलब है खेती की लागत में भारी कटौती होना। आज खेती की सारी समस्याओं की जड़ ही कृषि में अत्यधिक लागत यानी इनपुट है। ट्रैक्टर, बीज, फर्टिलाइजर, पेस्टिसाइड, पानी, स्टोरेज सब कुछ खर्चीला है। फसल लेने में किसान का इतना पैसा खर्च हो जाता है कि फसल बेचकर भी कई बार मूलधन तक वापस नहीं हो पाता। खेती-किसानी के साथ यही रोना है। प्राकृतिक प्रकोप का डर अलग से होता है।  किसान करे तो क्या करे। अपना काम वह छोड़ नहीं सकता और खेती के काम से उसका काम नहीं चलता।

पारंपरिक खेती यानी गेहूं-धान की फसल लेने में ट्रैक्टर, बीज, फर्टिलाइजर, पेस्टिसाइड, पानी, स्टोरेज का जो झंझट है उसे मोटे अनाज के विकल्प के साथ खत्म किया जा सकता है या काफी कम किया जा सकता है। प्राकृतिक प्रकोप जैसे कि अतिवृष्टि, अनावृष्टि, आंधी-तूफान, ओला, आगजनी, टिड्डी आदि का जोखिम भी नहीं के बराबर है। छोटी जोत या सीमांत किसानों के लिए तो ये फसलें बेहद फायदेमंद हैं।

पहले से चल रही थी तैयारी

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने अप्रैल 2018 में मोटे अनाज को भारत में न्यूट्री अनाज के रूप में रीब्रांड किया था और वर्ष 2018 को इन अनाजों के प्रचार और मांग को बढ़ाने के लक्ष्य के साथ मोटे अनाज का राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया गया था। इसके बाद भारत सरकार ने मार्च 2021 में संयुक्त राष्ट्र आमसभा में 2023 को अंतर्राष्ट्रीय मिलेट्स ईयर के रूप में मनाने का प्रस्ताव पेश किया था। इस प्रस्ताव के समर्थन में दुनिया के 72 आगे आये। 15 दिसंबर 2022 को देश के विदेश मंत्री एस जयशंकर की तरफ से संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरस सहित यूएन सुरक्षा परिषद के सदस्यों को न्यूयॉर्क में मोटे अनाज के लंच के लिए आमंत्रित किया गया था। यह लंच टाटा समूह के ताज होटल से जुड़े पियरे होटल में बनाया गया था। इस लंच में यूएन के सदस्यों को बाजरे की खिचड़ी, पकौड़े जैसे व्यंजन परोसे गए थे। इसके बाद 20 दिसंबर 2022 को संसद में देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, सांसदों और अन्य नेताओं ने मोटे अनाज का लंच किया। केंद्रीय कृषि व किसान कल्याण मंत्रालय ने इस लंच का आयोजन किया था।

अंतर्राष्ट्रीय पोषक अनाज वर्ष 2023 के लिए आठ मोटे अनाजों को शामिल किया गया है। इनमें बाजरा, रागी, कुटकी, सांवा, ज्वार, कंगनी, चीना और कोदो हैं। दुनिया के कई देशों में मोटे अनाज को लेकर कार्यक्रम हो रहे हैं। भारत में भी इसको लेकर विभिन्न मंत्रालय और राज्य सरकारें अपनी-अपनी तरफ से तैयारियां कर रही हैं। किसानों को मोटे अनाज उगाने और लोगों को खाने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।

कम मेहनत वाली फसलें

आज दुनिया का तापमान लगातार बढ़ रहा है। हाल ही में जारी अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत जैसे कई देशों में आने वाले वर्षों में बढ़ते तापमान की वजह से दिन में काम करना मुश्किल हो जाएगा। माना जा रहा है कि इसका सबसे अधिक प्रभाव असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों पर पड़ेगा। खेती भी ऐसा ही असंगठित क्षेत्र है जिसमें किसान सुबह से लेकर रात तक खेत में लगे रहते हैं। दिन के वक्त तापमान जब सहने लायक नहीं होगा तो खेती-किसानी करने में भी परेशानी आएगी। इस हिसाब से देखा जाए तो धान जैसी बहुत अधिक मेहनत वाली फसलों की बजाय मोटे अनाज की फसलें लेना सुविधाजनक होगा, क्योंकि ये फसलें हर परिस्थिति का मुकाबला करने में सक्षम होती हैं।

सेहत से भरपूर

मोटे अनाज स्वास्थ्य के लिए बहुत फायदेमंद होते हैं और पौष्टिकता से परिपूर्ण होते हैं। इनमें कार्यात्मक यौगिक जैसे रेशे युक्त, धीमी गति से पचने वाले काबोर्हाइड्रेट, प्रोटीन, कैल्शियम, लोहा, जस्ता, मैग्नीशियम, बी-कॉम्प्लेक्स विटामिन और फाइटो-केमिकल्स होते हैं। ये कई प्रकार के बैक्टीरिया और वायरल संक्रमणों से लड़ने में फायदेमंद होते हैं। मोटे अनाज अम्लता यानी एसिडिटी की समस्या को कम करने वाले, आसानी से पचने वाले और किसी भी प्रकार की एलर्जी से रहित खाद्य पदार्थ होते हैं। ये कई स्वास्थ्य विकारों के खिलाफ रोग प्रतिरोधक क्षमता यानी इम्युनिटी बढ़ाने में मदद करते हैं। डॉक्टरों द्वारा मधुमेह, हृदय, रक्तचाप, खराब पाचन, कब्ज, ऐंठन, सूजन, अस्थमा, गठिया, थायराइड, माइग्रेन, मिर्गी, अल्सर और कैंसर रोगियों तथा शारीरिक मोटे लोगों को मोटे अनाज का सेवन करने की सिफारिश की जाती है। इसके अलावा मोटे अनाज ग्लूटेन से मुक्त होते हैं, जबकि गेहूं में अत्यधिक ग्लूटेन पाया जाता है। इसलिए ये अनाज सीधे तौर पर ग्लूटेन से पीड़ित लोगों के लिए गेहूं का विकल्प बन सकते हैं। मधुमेह रोगियों के लिए तो ये संजीवनी से कम नहीं हैं।

कुल मिलाकर मोटे अनाज ‘श्रीअन्न’ कहलाने के सौ फीसदी हकदार हैं। इनकी खेती और भोजन हर लिहाज से लाभकारी और गुणकारी है। आज मिट्टी की सेहत, खुद की सेहत और पर्यावरण की सेहत तीनों के लिए इसे प्राथमिकता पर रखना जरूरी है।

 

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