
कहां गये धारे, नौले और गधेरे?
सुरेश नौटियाल। अपनी उम्र साठ पार है और बचपन उत्तराखंड के पहाड़ी गांव में बीता। पहले पढ़ाई और अब कमाई की मजबूरी के चलते शहर दिल्ली में बसासत है। बचपन से लेकर अब तक गांव, पहाड़ और उत्तराखंड से बराबर संवाद, संपर्क और सामना होता रहा है पर जितनी खस्ता हालत इस बार अपने पहाड़ उत्तराखंड की देखी, उतनी कभी नहीं। दोष जलवायु परिवर्तन का अवश्य होगा लेकिन अपनी राज्य सरकार की भी तो कोई जिम्मेदारी होगी ही!
बात पानी की हो रही है। उत्तराखंड का बड़ा हिस्सा और खासकर पहाड़ी इलाका पेयजल की किल्लत का ऐतिहासिक मुकाबला कर रहा है। जैसे-जैसे गर्मी बढ़ी है, जलसंकट भी बढ़ा है। संकट कितना गहरा और चिंताजनक है, इसके एक-दो फौरी उदाहरण काफी होंगे। अपना गांव उणचर पौड़ी शहर से दस-बारह किलोमीटर दूर पौड़ी-देवप्रयाग मार्ग के पास इडवाल घाटी में स्थित है। पूरी इडवालस्यूं पट्टी में संभवतः हमारा गांव ही ऐसा था जहां मोटे पानी के पांच-सात और बारीक पानी के दस-बारह स्रोत थे। यही वजह रही कि आसपास के अनेक गांवों के लिए हमारे गांव के जलस्रोतों से पानी उपलब्ध कराया गया। ऐसा आज भी चल रहा है लेकिन गांव में मोटे पानी मात्र तीन और बारीक पानी के पांच-सात स्रोत रह गये हैं। यह सब पिछले बीस-तीस साल में हुआ है और पिछले एक दशक से पानी सूखने या कम होने का क्रम काफी तेज हुआ है।
कारण स्पष्ट हैं। एक तो करेला, ऊपर से नीम चढ़ा! अर्थात् एक तो जलवायु परिवर्तन और दूसरे पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और पारिस्थितिकी के विपरीत आचरण करने वाले पेड़-पौधों और वनस्पतियों का बढ़ना। इस कारण जलस्रोतों में कमी आयी है। मेरी दादी-नानी नहीं, मां-ताई भी जिंदा होतीं तो विश्वास न करतीं कि महज आधी सदी में इतना बड़ा फर्क आ गया है। जिस ब्रह्मांड में लाखों-करोड़ों वर्ष की कोई गिनती नहीं, उस ब्रह्मांड में मात्र आधी सदी में इतने बड़े मौसमी परिवर्तन!
जब अपने पास बचपन था तब न जलवायु परिवर्तन जैसा विषय था और न वर्षा-पानी की चिंता। चिंता तो अति ओलावृष्टि, अतिवर्षा और अति झंझावात की रहती थी। धारे, नौले, गधेरे, गाड़ इत्यादि निर्बाध और अनवरत जल उपलब्ध कराते थे। दिनोंदिन सूरज के दर्शन नहीं होते थे। एक बार तो अपने इलाके में लगातार कई दिन तक आसमान में बादल छाये रहे और लगभग लगातार मूसलधार वर्षा होती रही। अफवाह फैली कि प्रलय होने वाली है। हम छोटे थे तो बालमन से अपनी मां आनंदी से पूछते कि प्रलय होगी तो कितना मजा आएगा? मां रुआंसी हो जाती और कहती कि सबकुछ खत्म हो जाएगा। हम पूछते कि सबकुछ खत्म होने के बाद क्या होगा तो बदले में चुप होने की हिदायत या झिड़की मिलती। बहरहाल, जब दिनोंदिन पानी गिरना नहीं थमा तो प्रलय के डर से अपने गांव वालों ने मवेशी खुले छोड़ दिये लेकिन वे बेचारे रोज शाम को आदतन घर लौट आते। लोगों ने उन्हें ओबरों में जूड़ों से बांधना बंद कर दिया था। महिलाओं ने खेतीबाड़ी का काम बंद कर दिया था। अपने गांव में एक ही इकहरा मकान था डूंडी बोडी का। उसके आंगन में पूरे गांव के लोग इकट्ठा हो जाते और भजन-कीर्तन चलता रहता दिन और रातभर। प्रलय की प्रतीक्षा में शायद कई नास्तिक बन गये होंगे आस्तिक!
कुछ दिन बीते पर प्रलय नहीं आयी। वर्षा भी थम गयी थी। धीरे-धीरे जनजीवन सामान्य हो गया और समयचक्र के साथ-साथ लोग भूल भी गये कि कभी उन्होंने प्रलय की प्रतीक्षा में अपना ध्यान पूरी तरह से धर्म-कर्म में लगा दिया था। आज शायद कोई सोच भी नहीं सकता कि महज 60 साल पहले ऐसा हुआ होगा। तब सूचनातंत्र अत्यंत क्षीण था, सरकारी सहायता की परिभाषा लोग जानते न थे और सरकार से ज्यादा भरोसा लोगों को अपने इष्ट-देवों पर था।
एक उदाहरण और। मेरी छोटी बहन भगीरथी का विवाह जब 25-30 साल पहले अलकनंदा तीरे मलेथा गांव में हुआ तब वहां बूढ़े-बड़े और भीमकाय आम के वृक्षों की जड़ पर पानी का एक ठीकठाक स्रोत था। मलेथा जैसे बड़े गांव का बड़ा हिस्सा इसी स्रोत से मीठा और ठंडा पानी प्राप्त करता था। आज वहां इसके अवशेष हैं पर पानी नहीं।
एक अन्य उदाहरण। जब बच्चे थे तब तीन फसलें रबी, खरीफ और दलहन किसानों को हर साल मिलती थीं। आज दोनों-तीनों सारियों के खेत सूखे और सूने पड़े हैं। जवान विधवाओं जैसे लगते हैं हमारे उत्तराखंड के खेत! हां, इन खेतों में कुछ गतिविधियां हैं- कहीं नये मकान बन रहे हैं तो कहीं क्रिकेट और फुटबाल के खेल चल रहे हैं। खेतों में हम भी खेलते थे पर तब खेल भैलों से लेकर कबड्डी, गिल्ली-डंडा, गोलियों (कंचों) का खेल और ‘आसइ-पाइस’ या खो-खो जैसे खेल होते थे। आज वैश्विक ध्रुवीकरण हो चुका है। जिस प्रकार पारंपरिक ज्ञान क्षीण हो रहा है वैसे ही हमारे खेल बदल रहे हैं। पारंपरिक खेलों को भूलकर हम उन खेलों को सीखने का प्रयास कर रहे हैं जो टीवी पर दिखाये जाते हैं। क्रिकेट इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। शायद किसी भाषा में इसे पतन कहते हों! जी, जीवन में इस मर्तबा पहली बार गांव के धारे में कम और काफी कम पानी देखा।
बहुत से पुराने लोगों की तरह पानी की धार भी कुंद-सी हो गयी है। उत्तराखंड के पेयजल मंत्री को भी मानना पड़ा है कि उत्तराखंड भीषण जलसंकट का सामना कर रहा है। एक अखबार से बातचीत में उन्होंने स्वीकारा कि जनता को जरूरत के हिसाब से पानी नहीं मिल पा रहा है। जलस्रोतों में नब्बे से सौ प्रतिशत तक पानी की कमी हो गयी है। हैंडपंपों ने काम करना बंद कर दिया है तो नलों से पानी के बजाय हवा आ रही है। टैंकरों और खच्चरों की मदद से भी जनता की प्यास बुझायी नहीं जा सकी है। सैकड़ों करोड़ रुपये स्वाहा होने के बाद भी यह स्थिति है! यह उस क्षेत्र के हालात हैं जिसे कभी भारत के वाटर टावर के तौर पर देखा जाता था। उत्तराखंड में अनेक बड़ी नदियां हैं जो कम से कम उत्तरी और पूर्वी भारत के लिए जीवनरेखा से कम नहीं हैं। इन नदियों के जलस्तर में कमी आने से निस्संदेह करोड़ों लोगों के साथ-साथ बड़े स्तर पर वनस्पतियों और प्राणिजगत को भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। उत्तराखंड के जंगलोें में आग लगने से हर साल संभवतः लाखों करोड़ पशु-पक्षी और अन्य प्राणी मर जाते हैं। छोटे पौधे और वनस्पतियां नष्ट होती हैं सो अलग।
पानी का जहां तक सवाल है, उत्तराखंड तमाम दिक्कतों के बावजूद मैदानों की प्यास बड़ी सीमा तक बुझा रहा है लेकिन उसके अपने गांव, लोग और जंगल प्यासे हैं। केन्द्र और राज्य सरकार की अनेक योजनाएं चल रही हैं पर पानी के लिए त्राहि-त्राहि में कमी नहीं आयी है। ये योजनाएं कभी सफल नहीं हो पायीं लेकिन पूर्व में प्राड्डतिक जलस्रोतों से पहाड़ी गांवों के लोग अपना गुजारा कर लेते थे। अब ऐसा भी नहीं है।
2 Comments
Excellent editorial
Educative article.
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